Posts

शिक्षक

💐सबको शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।💐 शिक्षक एक ऐसा अभिधान है जो हम सभी के जीवन में अपना अमूल्य स्थान रखता है। वैसे तो हम रोज कुछ ना कुछ किसी ना किसी के द्वारा अपने दैनंदिन कार्यों में सीखते ही हैं पर शिक्षक जो विद्यालय में हमें सिखाते हैं वह एक अद्भुत प्राप्तव्य है। इसी कारण तो हर कोई उस शिक्षक के पद को प्राप्त नहीं कर पाता है चाहे हम उससे कितना भी सीख ले। जब हम कभी संशयात्मक परिस्थिति में होते हैं अपने उस मनपसंद शिक्षक की बातों को याद करते हैं और हमारा संदेह तत्काल ही उड़न छू हो जाता है। हम अपने आप को एक सही दिशा में और सही स्थान पर पाते हैं। कई बार तो हमें याद आता है कि हमारे सबसे क्रोधित होने वाले शिक्षक ने हमें अपने कर्तव्य बोध के प्रति सदा सचेस्ट किया और आज हम जिस भी परिस्थिति में हैं उन्हीं शिक्षक के उस डांट का प्रतिफल है और कई बार हमें सौम्य व्यवहार वाले शिक्षक की याद आती है जिन्होंने अपने साधारण से व्यवहार से हमें और साधारण होने के लिए प्रेरित किया। वैसे तो वर्तमान में शिक्षा को व्यवसाय और शिक्षक को व्यवसाय का संचालक माना जा रहा है। पर यह इससे कहीं बहुत अधिक है। यह किसी

ईश्वर

  मनुष्य की खोज का एक मात्र केन्द्र-बिन्दु।  अपने सभी अनुसन्धानों मे मनुष्य ने, जो है उससे अधिक की खोज मे अपने आप को खपा दिया है। वह अधिक, उस खोजी मनुष्य को मिलता भी है पर तभी कोई दूसरा उससे भी अधिक की खोज कर देता है और वह पूर्व मे किया गया खोज उत्कृष्टतम होते होते रह जाता है। फिर उस नये वाले से उत्कृष्ट क्या है इसकी तलाश शुरू हो जाती है। ईश्वर परम् आवश्यक तत्त्व है। सामान्यतः इसके बिना इस संसार के किसी भी मनुष्य का कोई कार्य संभव न हो सके। ईश्वर की जरुरत अक्सर संकट काल मे देखी गयी है। परन्तु सामान्य अवस्था मे भी हमे उसकी तलाश रहती है जहां हम अपनी इच्छाओं को जाहिर कर सकें, अपनी आवश्यकताओं को बता सकें, अपनी खुशी व्यक्त कर सकें और सबसे महत्वपूर्ण जिसके अङ्क मे अपने आप को समर्पित कर सकें।   मुझे लगता है हमारी फितरत है अधीनता की। हम सर्वदा किसी ऐसे उत्कष्ट की खोज मे रहते हैं जो हमारे प्रत्येक क्रिया-कलाप को समझ सके और हमें प्रोत्साहित कर सके। इसीलिए मुझे लगता है कि हम अधीन रहना पसन्द करते हैं।  पर वह अधीनता सर्वशक्तिमान्, सर्वगुणसम्पन्न, सर्वकर्तृत्वशक्ति, सर्वनियन्तृत्वशक्ति और सर्वभोक्तृ

होने की समझ

       अस्तित्व होने का अनुभव करना है। यह अनुभव स्वयं होता है और अपने आस-पास को प्रभावित करता है। मानव के सारे उपक्रम जो वह अपने संज्ञानात्मक प्रवृत्तियों का उपयोग करने से प्रारम्भ करता है इसी अस्तित्व के लिये होते हैं। किसी के प्रति सन्देह, किसी के प्रति लगाव, किसी के प्रति ईर्ष्या या फिर किसी के प्रति क्रोध सभी जगह अपने आप को स्थापित करने कि जद्दोजहद है।       मेरे बारे मे वह क्या सोचता है ? इस प्रश्न का उत्तर भी अपने आप को स्थापित करना ही होता है न कि उस दूसरे के होने मे सहयोग करना।   अपने होने का अनुभव दूसरों को कराना अस्तित्व के समर का प्रमुख ध्येय है। अस्तित्व की यह लड़ाई अनादिकाल से अनवरत विद्यमान है। इसी अस्तित्व की लड़ाई मे सभ्यताओं का विकास हुआ। वैज्ञानिक आविष्कारों का तांता चल पड़ा। अपने होने का एहसास वैसे तो व्यक्तिनिष्ठ होता है परन्तु अधिकतर समय यह समूह परक भी देखा जाता है। किन्तु यहां यह कहना मिथ्या नहीं होगा कि समूह के प्रारम्भिक अवस्था मे भी एक व्यक्ति ही स्रोत के रूप मे कार्य करता है। अतः समूह-परक अस्तित्व की लड़ाई भी व्यक्ति -निष्ठ ही है। अपनी उपस्थिति स्वयं मे, परि

आदत

       आदतें भी कमाल होती हैं। जैसे- बात करने की आदत, चुप रहने की आदत, पढ़ने की आदत, जिम जाने की आदत, देवालय जाने की आदत या फिर किसी व्यक्ति या वस्तु की आदत। आदमी क्या है आदतों का पिटारा है। बाल्यकाल मे जो आदत हम अपना लेते हैं वह हमारे साथ नित्यकर्म के रूप मे जुड़ जाती है। उसके निर्वाह के लिये हमें कोई तैयारी की आवश्यकता नहीं पड़ती है। पर वही जब हम बड़े हो जाते हैं किसी नई आदत को बनाने मे कठिनाईयों का अम्बार लग जाता है। पर हमारा दृढ़निश्चय उस कार्य को आदत बना देता है।       हमारी कई आदतों का बदलाव हमारे सहधर्मियों या सहवासियों के संसर्ग के कारण भी बन जाता है और हमे पता हीं नहीं चलता है। कब हम अपने क्रिया-कलाप से स्वयं को पृथक् कर लेते हैं और अपने साथी जैसै बन जाते हैं हमें ज्ञात हीं नहीं होता है। अनेकशः हमारा साथी भी कब हमारी आदतों का शिकार हो जाता है हमे हीं नहीं पता चलता है। अतः हमे हमेशा अपनी आदतों के प्रति सचेत रहना चाहिये। यदि हम सचेत हैं तो सब ठीक है। अन्यथा हम कब अपने आप को खो देंगें हमे पता हीं नहीं चलेगा। अतः हमे निर्णय स्वयं करना चाहिये कि हम किस ओर जा रहे हैं? अपने आप को खो

राजा भोज

  परमारवंश और राजाभोज भारतवर्ष अनेक क्षत्रिय राजाओं के इतिहास से अलङ्कृत है। इन सभी राजाओं के मध्य परमारवंशीय क्षत्रिय राजा अपना विशेष स्थान रखते हैं। उदयपुर प्रशस्ति के अनुसार इस वंश के प्रमुख या प्रथमपुरुष अर्बुदाचल पर वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न हुए थे। इन राजाओं ने मालव देश पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। इन राजाओं मे कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उपेन्द्र   नामक राजा ने नवमशताब्दी मे प्रसिद्धि प्राप्त किया। इनके वंश की परम्परा इन्हीं राजा के साथ हमारे सामने प्राप्त होती है। मालवाधीशों की वंशपरम्परा 1. उपेन्द्र     ( 800-825) 2. वैरीसिंह  ( 825-50) 3. सीयक    ( 850-875) 4. वाक्पति  ( 875-914) 5. वैरीसिंह (वज्रट नाम से प्रसिद्ध)   ( 914-941) 6. सीयक (हर्षदेव नाम से प्रसिद्ध)  ( 941-976) 7. वाक्पति (मुञ्ज नाम से प्रसिद्ध)     ( 976-997) 8. सिन्धुराज  ( 997-1010) 9. भोजराज  ( 1010-1055) इस वंशपरम्परा में विद्वानों की एक प्रसिद्ध परम्परा है। भोजराज के चाचा राजा मुञ्ज सरस्वती   के अद्भुत उपासक थे। इनके बारे मे प्रबन्धचिन्तामणि मे एक श्लोक आया है जिसमे कहा गया है कि मुञ

खुशियों का मूर्त रूप

संलग्न हूं , अपने दैनंदिन में , बरसों से बनी हुई आदतों को सहेजने में , समय-समय पर सहेजे गए क्रियाकलापों को पूरा करने में,  संलग्न हूं । अनवरत ,  अबाध, मुस्कुराहटों को सामने खड़ा करने में, संलग्न हूं कभी इसकी कभी उसकी, खुशियों को मूर्त रूप देने में ।  संलग्न हूं ,  अनवरत, अबाध , स्वकर्म से, खुशियों को  साकार बनाने के लिए , अपने आप को भुला कर , जैसे पता ही नहीं है कि , मैं खुद हूं , या , मैं कोई और।

#संस्कृतदिवस

# संस्कृतदिवसस्य हार्दिक्यः शुभकामनाः संस्कृतं न केवला भाषा अपितु भारतीयतायाः प्रकाशिका संस्कृतेश्च संपोषिका अपि वर्तते। एषा वैचारिकोन्नतेः साधनमपि अस्ति। मातृवत् वात्सल्यं प्रदर्शयति। बन्धुवत् सहाय्यतत्परा भवति। भगिनीवत् प्रेमप्रकाशिका अस्ति। पितृवत् वैचारिकोन्नतिशिखरे स्वात्मजान् द्रष्टुं ययते। मित्रवत् विवेकं जनयति। तस्मात् सर्वैः एषा अवश्यम् आश्रयणीया। भारतीयतायाः प्रकाशिका सम्पूर्ण भारतीय ज्ञान-परम्परा की संवाहिका संस्कृत है। आहार-व्यवहार, वेष-भूषा, कर्तव्याकर्तव्य आदि का प्रकाशन इसी भाषा मे सन्निहित है। संस्कृतेः सम्पोषिका यह वस्तुपरक न होकर अर्थपरक भाषा है। जैसे भारतीय कालविभाजन युगपरक है सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग । प्रत्येक युग का अपना स्वरूप है जो वर्तमान को क्या होना है इसके लिये प्रयत्नशील रहने का उत्साह भरता है। ईश्वीय वर्ष ऐसा कोई स्वरूप नहीं बताता है। वैचारिकोन्नतेः साधनम् वैचारिकोन्नति का अर्थ है समस्त प्राणियों के प्रति आदर-भाव का होना। यह विचार इस भाषा से स्फुट रूप मे आता है। पशु-पक्षि-वन-पर्वतों को देवता का स्वरूप इसी भाषा की देन